अरस्तू के नागरिकता संबंधी विचार

अरस्तू ने अपने ग्रन्थ पालिटिक्स  की तीसरी पुस्त्तक में नागरिकता संबंधी विचार दिये । उसके अनुसार राज्य (Polis) नागरिको (Politia) का एक समुदाय है । नागरिक कौन हैं इसे बताने से पहले वह यह बताता है कि नागरिक कौन नहीं है।

  •  सिर्फ राज्य में निवास करने की दृष्टि से किसी भी व्यक्ति को नागरिक नहीं माना जा सकता- क्योंकि वहाँ विदेशी तथा दास भी निवास करते हैं।
  •  अभियोग चलाने का अधिकार भी किसी भी व्यक्ति को नागरिक नहीं बनाता क्योंकि यह अधिकार विदेशियों को संधि से प्राप्त हो जाता है।
  •  नागरिक की संतान को भी नागरिक नहीं माना जा सकता क्योंकि यह बात पुराने राज्यों के लिए उपयुक्त हो सकती है परन्तु नये बसाए हुए राज्यों के लिए नहीं।
  •  जिसकी नागरिकता छीन ली गयी हो अथवा जिसे देश निकाला दिया जा चुका है , उसे भी नागरिक नहीं माना जा सकता है ।
अरस्तू ने नागरिकता की परिभाषा देते हुए कहा"  जो व्यक्ति स्थायी रूप से न्याय के प्रशासन में तथा राजकीय पदों को ग्रहण करने में भाग लेता है वह नागरिक है।"

अरस्तू नागरिकता की परिभाषा ताकालीन समय में एथेंस में प्रचलित प्रत्यक्ष जनतंत्र के आधार पर देता है उसका नागरिक वर्तमान समय के नागरिक की तरह अपने शासकों को निर्वाचित करने वाला नागरिक नहीं वरन् शासन संचालन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाला वरन् बारी -बारी से शासक और शासित बनने वाला, न्याय और विधि निर्माण के कार्यों में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाला नागरिक है।

अरस्तू नगर राज्य के प्रत्येक निवासी को नागरिकता का अधिकार प्रदान नहीं करता है । नगर- राज्य में रहने वाले सभी विदेशियों, दासों, श्रमिकों, शिल्पियों, स्त्रियों को वह नागरिकता से वंचित रखता है । अरस्तू का कथन है कि नागरिकता एक विशेष गुण है जिसके लिए विशेष योग्यता की आवश्यकता होती है । विधि निर्माण और न्यायिक कार्यों को सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए उच्च नैतिक और बौद्धिक स्तर की आवश्यकता होती है। अरस्तू श्रमिक वर्ग को नागरिकता से वंचित करते हुए कहता है कि शारीरिक श्रम मनुष्य की आत्मा को पूर्णतः अनुदार बना देता है जिसके कारण वे एक नागरिक का उच्च जीवन व्यतीत करने में असमर्थ होते हैं। इस प्रकार अरस्तू राज्य के बहुसंख्यक  निवासियों को नागरिकता के अधिकार से वंचित कर देता है।


नागरिकता संबंधी प्लेटो और अरस्तू के विचारों की तुलना - 

 सैद्धान्तिक दृष्टि से प्लेटो  दासो को नागरिकता का अधिकार प्रदान करता है जबकि अरस्तू इन्हें वंचित रखता है। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से कम ही अंतर है क्योंकि प्लेटो दासों  को मात्र शासकों के आदेश पालन के अतिरिक्त कोई अधिकार नहीं   देता जो  अरस्तू के समान ही दासों को किसी प्रकार के अधिकारों को प्रदान न करने की स्थिति है।
वास्तविक रूप में दोनों के आदर्श राज्य में वे नागरिकता के अधिकारो से वंचित रहते हैं। अरस्तू ने स्त्रियों को नागरिकता के अधिकारों से वंचित कर दिया जबकि प्लेटो उन्हें समानता  के सिद्धान्त के आधार पर नागरिकता का अधिकार प्रदान करता है। प्लेटो अच्छे नागरिक एवं अच्छे व्यक्ति में कोई भेद नहीं करता है।  अरस्तु के अनुसा इन दोनों में अंतर है एक अच्छे नागरिक के लिए आवश्यक गुण संविधान में परिवर्तन के अनुसार बदलते रहते हैं जबकि अच्छे व्यक्ति के लिए निर्धारित गुणों में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । 
अरस्तू के नागरिकता के विचारों की कमियां- अरस्तू श्रमिक वर्ग को नागरिकता के अधिकार  से वंचित कर उसे सिर्फ उच्च वर्ग तक ही सीमित कर देता है । यह श्रमिकों के लिए अमानवीय तथा अलोकतंत्रीय दृष्टिकोण  व व्यवहार का प्रतीक है। अरस्तू प्रत्येक नागरिक को विधि निर्माता और न्यायाधीश मानता है जबकि वर्तमान में अधिकांश नागरिकों का प्रमुख कार्य अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करने तक ही सीमित है। अरस्तू का नागरिकता का विचार कुछ दोषों के कारण पूर्णतः निरर्थक नहीं क्योंकि यह विचार बताता है कि नागरिक वही है जो संचालन में पूर्ण अभिरुचि के साथ सक्रिय भाग लेते हैं । आधुनिक युग के निर्वाचन के समय जग कर फिर अगले निर्वाचन तक सो जाने वाले नागरिकों को वह नागरिक नहीं मानता उसके अनुसार नागरिकता का अर्थ अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति निरन्तर सजगता है जो एक सच्चे नागरिक की निशानी है ।

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