अरस्तू का संविधानों का वर्गीकरण

अरस्तू ने अपनी  पुस्तक पालिटिक्स की तीसरी पुस्तक में 6 से 8 वें अध्याय में संविधान की व्याख्या की तथा विभिन्न प्रकार के संविधानो का उल्लेख किया । अरस्तू ने 158 देशों के संविधान का अध्ययन किया जिसके आधार पर संविधानों का वर्गीकरण किया।
संविधान का अर्थ बताते हुए अरस्तू ने कहा संविधान राज्य का एक ऐसा संगठन है जिसका संबंध सामान्यतया राज्य के पदों के निर्धारण से है विशेषकर ऐसे पदों के निर्धारण से है, विशेषकर ऐसे पदों के निर्धारण से जो राजनीतिक दृष्टि से सर्वोच्च हो।

अरस्तू मानता है संविधान राज्य की सर्वोच्च शक्ति की व्यवस्था करता है जो यह बताता है कि यह शक्ति किसमें निहित है । इस आधार पर संविधान का स्वरूप इस बात से निश्चित होता है कि उसके द्वारा अंतिम रूप में शासन सत्ता को कहाँ केंद्रित किया गया है  क्योंकि जिन व्यक्तियों के हाथ में संप्रभुता निहित होती है उसी के आधार पर संविधान के स्वरूप का निर्धारण होता है।

अरस्तू के अनुसार "सत्ता की सामान्य व्यवस्था जिसके माध्यम से राज्य के कार्यों का संचालन किया जाता है, संविधान है। राज्य का सार भी संविधान है।"

अरस्तू ने संविधान का वर्गीकरण दो आधारों पर किया है
  1.  सम्प्रभुता कितने व्यकितयों के हाथों में निहित है अर्थात सम्प्रभु की संख्या का आधार ।
  2.  शासन का ध्येय जनहित या स्वहित  है, अरस्तू का दूसरा आधार अच्छे बुरे संविधानों को परखने की कसौटी है ।

 इस आधार पर वह सारे संविधानो को दो भागो में
  1.  विशुद्ध या सही संविधान - जो जनता के हितों के लिए निरन्तर कार्य करता है।
  2.  विकृत या भ्रष्ट संविधान- जिसके द्वारा शासकों की स्वार्थ सिद्धि पर ध्यान दिया जाता है।

जब सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में केंद्रित होती है इसका शुद्ध रूप  राजतंत्र कहलाता है जिसमें सर्वोच्च शासक अथवा राजा सामान्य हित को ध्यान में रखकर शासन संचालन करता है परन्तु जब यह भ्रष्ट होकर सामान्य हित के स्थान पर स्वहित या स्वार्थ  को ध्यान में रखकर  शासन कार्य करता है तब यह निरकुंश तंत्र में परिवर्तित हो जाता है। क्रांति द्वारा इस निरकुंशतंत्र को पलट दिया जाता है तो कुछ योग्य एवं गुणी व्यक्तियों का शासन अर्थात कुलीनतंत्र की स्थापना होती है जो राज्य सत्ता का प्रयोग सामान्य हित को पूर्ति हेतु करता है परन्तु जब यह भ्रष्ट हो जाता है तब यह धनिकतंत्र में बदल जाता है। सार्वजनिक विद्रोह द्वारा जब उन्हें अपदस्थ कर दिया जाता है तो शुद्ध सर्वतंत्र या संविधानतंत्र का उदय होता है तथा जब यह भ्रष्ट हो जाता है तो भीड़तंत्र या भ्रष्ट प्रजातंत्र के रूप में परिवर्तित हो जाता है । इस भीडतंत्र शासन को समाप्त करने और सुशासन स्थापित करने के लिए एक सदगुणी व्यक्ति का उदय होता है जो इस भ्रष्ट जनतांत्रिक शासन को समाप्त करके पुनः एक ऐसे राजतंत्र की स्थापना करता है जिसका उद्देश्य सामान्य हित की सिद्धि करना होता है। 

अरस्तू द्वारा प्रतिपादित संविधानो का वर्गीकरण व आधुनिक युग के यथार्थ के अनुकूल नहीं है परन्तु यह वर्गीकरण यह सिद्ध करता है कि सम्प्रभुता का उपयोग करने वाले शासकों की संख्या पर ही संविधानों का वर्गीकरण नहीं किया जाना चाहिए वरन् उसका आधार वह उद्देश्य भी होना चाहिए जिसके अनुसार वे संप्रभुता का प्रयोग करते हैं। यह वर्गीकरण युगानुकूल नहीं होते हुए भी राजनीतिक चिंतको के लिए आज भी स्थायी महत्व रखता है।

Comments

Popular Posts