अरस्तु

राजनीति विज्ञान के जनक अरस्तू का जन्म 384 ई० पू० में स्टेगिरा के थ्रेसियन नगर में हुआ था। इनके पिता निकोमैकस मकदूनिया के राज दरबार में वैद्य थे। पारिवारिक प्रथा के अनुसार अरस्तू को भी चिकित्सक बनने का प्रशिक्षण प्राप्त हुआ । चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करने के कारण ही अरस्तू में वैज्ञानिक  दृष्टिकोण का विकास हुआ जिसका बाद में उसने राजनीतिशास्त्र के अध्ययन हेतु प्रयोग किया । अपने पिता की मृत्यु के पश्चात वह प्लेटो की अकादमी की ख्याति से प्रभावित होकर 17 वर्ष की आयु में एथेंस जाकर प्लेटो का शिष्य बन गया।
अरस्तू की मुख्य पुस्तक पालिटिक्स, कॉन्स्टीट्यूशन्स, रिटोरिक्स, पोइटिक्स, इथिक्स आदि हैं। अरस्तू ने शोध एवं वैज्ञानिक एवं आगमन पद्धति को अपनाया |



अरस्तू के दास प्रथा पर विचार - 

दास प्रथा यूनानी सभ्यता की बुनियाद थी । नगर राज्यों के नागरिकों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन का सारा कार्य दासों के द्वारा किया जाता था। एण्टीफोन जैसे कुछ सोफिस्ट विचारकों ने मानव समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर इसका विरोध किया था। किंतु अपनी रुढिवादिता के कारण अरस्तू ने इसका समर्थन किया । अरस्तू का मानना था कि प्राकृतिक दृष्टि से कुछ लोगों के लिए दासत्व अच्छी और न्यायपूर्ण स्थिति है। अरस्तू दास प्रथा को  प्राकृतिक मानता है ।वह कहता है दास प्रथा प्रकृति प्रदत्त है क्योंकि सब जगह प्राकृतिक नियम दृष्टिगोचर होता है। उत्कृष्ट निकृष्ट पर शासन करता है । कुछ व्यक्ति शासक के रूप में जन्म लेते हैं कुछ शासित के रूप में । कुछ आदेश देने के उद्देश्य से जन्म लेते हैं तथा कुछ आदेश पालन करने के लिए, जो आदेश देते हैं वे स्वामी है तथा विवेक शून्य व्यक्ति दास होते हैं।

अरस्तू के अनुसार" प्रकृति स्वतंत्र पुरुष और दास के शरीर में भेद करती है अतः वह दास के शरीर को आवश्यक सेवा कार्यों के लिए बलवान बनाती है तथा स्वतंत्र पुरुष के शरीर को सरल और सीधा बनाती है जिससे वह शारीरिक श्रम के अयोग्य होते हैं। " इस प्रकार प्रकृति स्वामी और दास की मानसिक रचना में ही नहीं शारीरिक रचना में भी भेद करती है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि दास प्रथा एक स्वाभाविक संस्था है ।

अरस्तू दास प्रथा को स्वामी  एवं दास दोनों के लिए हितकारी मानता है। वह बताता है जिस प्रकार संगीत के सृजन के लिए संगीतज्ञ को वाद्य यंत्रो की आवश्यकता होती है उसी तरह नागरिकों को श्रेष्ट जीवन और नैतिक बौद्धिक विकास के लिए दासों की आवश्यकता होती है। दासों की सहायता के बिना नागरिकों का जीवन न तो उत्तम और न ही चारित्रिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार दास प्रथा दास के लिए हितकर है क्योंकि अरस्तू मानता है दास एक विवेकहीन प्राणी है, उसकी स्थिति बच्चे के समान है यदि बच्चे को माता पिता का संरक्षण ने प्राप्त हो तो वह ऐसा कार्य कर सकता है जिससे उसका अहित हो सकता है । ऐसे ही दास के विवेक शून्य प्राणी होने के नाते यदि स्वामी का संरक्षण प्राप्त नहीं होता वह बहुत से अहितकर कार्य कर सकता है । अतः स्वामी के संरक्षण में रहकर उसके मार्गदर्शन मै अपना जीवन यापन कर दास अपना हित कर सकता है। अरस्तू के अनुसार " शरीर से अलग होने पर भी दास स्वामी के शरीर के अंग हैं।"

अरस्तू नैतिक दृष्टि से भी दास प्रथा का समर्थन करता है वह मानता है कि स्वामी का नैतिक स्तर उच्च और दास का नैतिक स्तर निम्न होता है। दास का नैतिक स्तर तभी उच्च हो सकता है जब वह स्वामी के संसर्ग में रहे और आज्ञा के अनुसार जीवन संचालन करे ।

अरस्तू ने दासता के दो रुप बताये
  1. स्वाभाविक दासता
  2. वैधानिक दासता

स्वाभाविक दासता में वह प्राकृतिक दृष्टि से मंद बुद्धि, विवेकहीन, अकुशल व्यकितयों को सम्मलित करता है ।
वैधानिक दासता में वह बताता है कि युद्ध में पराजित होने के कारण जो व्यक्ति दास बना लिए जाते हैं। अरस्तू का मानना है कि दासता प्राकृतिक आधार पर निर्धारित की जानी चाहिए  वैधानिक आधार पर नहीं क्योंकि युद्ध में ऐसे व्यक्ति भी बंदी बना लिए जा सकते हैं जो नैतिक तथा बौद्धिक दृष्टि से उच्च कोटि के हो।

दास प्रथा का समर्थक होते हुए भी अरस्तू उसके क्रूर स्वरूप का समर्थक नहीं है। वह उसे कुछ ऐसे मानवीय आधारों पर आधारित करना चाहता है  जिससे कि उसकी क्रूरता और दोषों को कम किया जा सके और उसे अधिकाधिक मानवीय बनाया जा सके। अरस्तू की मान्यता थी स्वामी और दास दोनों के हित समान हैं स्वामी को अपनी उच्च स्थिति का कभी  गलत प्रयोग नहीं करना चाहिए और दास के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार  करना चाहिए और उसकी सुख- सुविधाओं का ध्यान रखना चाहिए । अरस्तू आवश्यकता से अधिक दासों को रखने का समर्थन नहीं करता है। वह कहता है कि दासता का आधार प्राकृतिक, वैधानिक अथवा वंशानुसार नहीं होना चाहिए ।
" अरस्तू जिस दासता की कल्पना करता है वह अपना आधा कलंक खो देती है । यह एक ऐसी दासता है जिसमें दास को परिवार के एक सदस्य की तरह सम्मलित किया जाता है । इस सदस्य के माध्यम से वह उन गुणों को प्राप्त करता है जो उसकी स्थिति के उपयुक्त होता है।" 

अरस्तू के दासता के विचार की अनेक आलोचको ने आलोचना करते हुए कहा कि यह वर्तमान में प्रासांगिक नहीं है ।अरस्तू द्वारा किया गया विभाजन अधिकांश व्यक्तियों को दास बना देगा । दासता को प्राकृतिक नहीं माना जा सकता है । मनुष्य में विवेक और ज्ञान संबंधी असमानता और अयोग्यता होते हुए भी उनमें मौलिक समानता होती है। जिसे मानने से इंकार करना मानव जाति का अपमान और अनादर करना है। दास पूर्णतः विवेक शून्य नहीं होता यदि ऐसा होता तब वह स्वामी के आदेश का पालन नहीं कर पाता ।

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