अरस्तू के क्रान्ति पर विचार

अरस्तू के समय यूनानी नगर- राज्यों में क्रान्तियों के माध्यम से अक्सर राजनीतिक परिवर्तन होने लगे थे। इससे नगर- राज्यों के राजनीतिक जीवन में अस्थिरता के लक्षण उत्पन्न हो गये थे जो उनके लिए विभिन्न संकटो को जन्म देकर उनकी स्थिति को विषम बना रहे थे । अरस्तू इससे चिंतित था। अरस्तू ने पॉलिटिक्स की 5 वीं पुस्तक में क्रान्ति का गहन अध्ययन किया और उनके मूलभूत कारणों का विवेचन करते हुए रोकने लिए विशद उपचारों की व्यवस्था की जिससे कि राज्य में उत्पन्न अस्थिरता के वातावरण को समाप्त कर स्थिरता स्थापित की जा सके।
अरस्तू के अनुसार क्रान्ति से तात्पर्य उन मूलभूत परिवर्तनों से होता है जिनसे समाज की काया पलट जाती है और जिनसे वह विकास की नई दिशाओं की ओर अग्रसर होता है। क्रान्ति का अर्थ सांविधान में हर छोटा- बड़ा परिवर्तन है । यदि परिवर्तन पूर्ण होता है तो वह पूर्ण क्रान्ति है यदि संविधान के एक भाग में क्रान्ति हो तो आंशिक क्रान्ति होती है । पूर्ण क्रान्ति जैसे निरकुंश तंत्र का जनतंत्र में बदलना । आंशिक क्रान्ति जब शासन के किसी विभाग में उग्र परिवर्तन किये जाएं।


अरस्तू के अनुसार क्रान्ति के उद्देश्य
 देश एवं काल  के अनुसार संविधान को परिवर्तित करना तथा कभी -कभी संविधान के स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन न करके केवल उसके अनुसार शासन शक्ति को अपने नियन्त्रण में लेना होता है। कभी- क्रान्ति का उद्देश्य विद्यमान संविधान को और अधिक यथार्थवादी बनाना होता है जैसे प्रजातंत्र को वास्तविक प्रजातंत्र बनाना। राज्य के थोड़े से पदों में परिवर्तन करना भी क्रान्ति का उद्देश्य हो सकता है ।
अरस्तू ने क्रान्ति के 5 प्रकार बताये हैं
* पूर्ण और आंशिक क्रान्ति 
* हिंसक और अहिंसक क्रान्ति
* व्यक्तिगत और अव्यक्तिगत क्रान्ति
* किसी वर्ग विशेष के विरुद्ध क्रान्ति
* बौद्धिक क्रान्ति
अरस्तू ने क्रान्ति के कारणों को तीन भागों में विभाजित किया
* मूल कारण
* सामान्य कारण
* विशेष कारण 
मूल कारण के अन्तर्गत अरस्तू क्रान्ति का मुख्य कारण असमानता को  मानता है ।  असमानता की व्याख्या करते हुए अरस्तु पहलेे समानता का अर्थ समझाता है  । अरस्तू  ने दो प्रकार की समानता बतायी । 
* संख्यात्मक समानता 
*योग्यता संबंधी समानता या आनुपातिक समानता  संख्यात्मक समानता का अर्थ सब को एक समान मानना यह एक जनतंत्रात्मक धारणा है, जिसके अनुसार यह माना जाता है कि सभी मनुष्य स्वतंत्र जन्मे हैं।
आनुपातिक समानता का अर्थ बताते हुए अरस्तू ने कहा है कि विभिन्न व्यक्ति जन्म, धन, योग्यता आदि की दृष्टि से असमान होते हैं अतः प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुपात में अन्य के मुकाबले में समान अथवा असमान माना चाहिए । अरस्तू का मानना है कि जब प्रजातंत्री तथा वर्गतंत्री लोगों द्वारा समानता का भिन्न - भिन्न ढंग से अर्थ लगाया जाता है और उसे सही सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है तो संघर्ष उत्पन्न होता है अंत में यह संघर्ष चरम सीमा पर पहुंचकर क्रान्ति को जन्म देता है। अरस्तू के अनुसार वर्गतंत्र अथवा धनिकतंत्र में होने वाले विद्रोह दो प्रकार के होते हैं। धनिक लोग आपस में ही दो दलों में विभाजित हो जाते हैं और राज्य शक्ति को प्राप्त करने के लिए एक दूसरे का विरोध करते हैं। अथवा धनिक वर्ग  की सत्ता को समाप्त करने के लिए निर्धन वर्ग उसके विरुद्ध क्रान्ति का आयोजन करता है । क्रान्तियों का मुख्य कारण न्याय का एकांगी और दुषित दृष्टिकोण है।
अरस्तू सामान्य कारणों में शासको की स्वार्थ सिद्धि, सम्मान की आकांक्षा , उच्चता की भावना, भय, घृणा, शासक वर्ग में आपसी विद्वेष, जातीय मतभेद, निर्वाचन संबंधी षडयंत्र , किसी शासकीय पद में अनावश्यक वृद्धि, अल्प परिवर्तनों की उपेक्षा, मध्यम वर्ग की अनुपस्थिति , शासक वर्ग की असावधानी आदि को सम्मिलित करता है।
क्रान्तियों के विशेष कारणों में वह बताता है ये कारण संविधान विशेष की प्रकृति में निहित होते हैं जो अन्य संविधानों में उपलब्ध नहीं होते है।
क्रान्ति को रोकने के उपाय में अरस्तू ने कानून पालन की भावना जागृत करने, आनुपातिक समानता  की स्थापना , शक्ति विकेंद्रीकरण , पदों का न्यायोचित विभाजन , नागरिकों में देशभक्ति की भावना का विकास, शिक्षा की उचित व्यवस्था , सम्पत्ति एवं अधिकारों की सुरक्षा को महत्वपूर्ण माना है।

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